उत्तरप्रदेश से रवि श्रीवास्तव और अमित मुखर्जी.संजय हफ्ते भर पहले मुम्बई से अपने गांव भटगवां पहुंच चुके हैं लेकिन अब तक उन्हें घर के दर्शन नहीं हुए। घरवालों और गांववालों ने उन्हें 14 दिन क्वारैंटाइन सेंटर में रहने को कहा है। दरअसल, इस गांव के कई लोग कामकाज के लिए बाहर ही मजदूरी करते हैं। लॉकडाउन के बाद जब ये गांव लौटने लगे तो गांववालों ने एहतियात के तौर पर एक प्राइमरी स्कूल में क्वारैंटाइन सेंटर बना दिया। अब जो भी प्रवासी मजदूर अपने घर लौटता है, उसे पहले इसी सेंटर में 14 दिन गुजारने पड़ते हैं।
संजय बताते हैं कि वे मुंबई में पेंटिंग का काम करते थे। लॉकडाउन के बाद काम धंधा बंदहो गया तो गांव लौट आए। वे कहते हैं कि गांव आया तो लोगों ने घर जाने ही नहीं दिया। सब लोगों की इच्छा थी तो फिर मैं क्वारैंटाइनसेंटर में ही रुक गया। संजय को खाना देने के लिए उनके पिता हरीश दोनों टाइम सेंटर आते हैं। वे कहते हैं कि मुझे पता है कि मेरा बेटा बड़ी परेशानियों के साथ गांव पहुंचा है लेकिन क्या करें घर के बाकी सदस्य और गांव के लोगों का भी तो ध्यान रखना है। इसलिए हमने उसे स्कूल में कुछ दिन ठहरने के लिए कह दिया।
क्वारैंटाइन सेंटर के संचालक इरफान कहते हैं कि यह सेंटर गांववालों की मदद से ही चल रहा है। गांववाले अपने-अपने लोगों के लिए खाना दे जाते हैं। जिनके पास नहीं आता उनके खाने की व्यवस्था हम खुद करते हैं।
पिता ने उधार लेकर 5 हजार भेजे तब जाकर गांव लौट पाए कन्हैया
भटगवां के पास ही बहेरिया गांव है। यहां भी गांववालों ने एक क्वारैंटाइन सेंटर बना रखा है। 5 दिन से इस क्वारैंटाइन सेंटर में रूके कन्हैया बताते हैं कि डेढ़ साल पहले वे गुजरात गए थे। वहां मेटल कंपनी में लेबर का काम करते थे। लॉकडाउन में काम बंद हुआ तो एक महीने के अंदर-अंदर जो कुछ रुपये थे वह सब खत्म हो गए। इसके बाद उन्होंने गांव लौटने की राह पकड़ ली।
कन्हैया 100 किमी से ज्यादा पैदल चले और फिर अलग-अलग ट्रकों की सवारी कर अपने गांव पहुंचे। यहां आते ही उन्हें गांव की सीमा पर बने क्वारैंटाइन सेंटर में ठहरने के लिए कह दिया गया।
कन्हैया के पिता पृथ्वीपाल बताते हैं, “एक रोज कन्हैया का फोन आया। वह बोला कि सब रुपये खत्म हो गए, खाने को भी कुछ नहीं है। मैंने गांव के लोगों से 5 हजार उधार लेकर उसे भेजे तब जाकर वह बड़ी मुश्किलों से 10 मई को यहां आ पाया। उसे अभी कुछ दिन और क्वारैंटाइन सेंटर में रूकना है। यहां रहने की व्यवस्था ठीक है। खाना हम घर से भेज देते हैं। खुशी बस इस बात की है कि हमारा लड़का इस बुरे समय में हमारे आसपास ही है।
गांववालों की मदद से चल रहा है क्वारैंटाइन सेंटर, खाना भी घरों से ही आ जाता है
संजय और कन्हैया की तरह ज्ञानंजय भी कामकाज के लिए घर से मीलों दूर थे। वे बताते हैं कि उनके पिता दूसरे के खेतों में काम करते हैं। उससे घर का खर्च पूरा नही हो पा रहा था। इसलिए वे 6 महीने पहले पीओपी का काम करने मुंबई चले गए। ज्ञानंजय कहते हैं, काम तो मिला नहीं उल्टा लॉकडाउन में फंस गया। पैसे भी खत्म हो गए थे। दोस्तों से कुछ उधार लिया और पैदल ही घर के लिए निकलना पड़ा। करीब 85 किमी पैदल चलने के बाद मुझे एक ट्रक वाले ने 3500 रुपये लेकर गांव से 10 किमी पहले छोड़ा। अभी घर जाने की इजाजत नहीं है क्योंकि गांववालों ने बाहर से आने वालों के लिए 14 दिन क्वारैंटाइन सेंटर में रुकना अनिवार्य किया है।
बहेरिया के ग्राम प्रधान दिलीप पांडेय बताते हैं कि सरकार ने हर गांव में क्वारैंटाइन सेंटर बनाने के निर्देश दिए थे। 1 मई से हमनेंयह सेंटर शुरू किया है। गांववालों के सहयोग से सबकुछ ठीक चल रहा है। यहां रूके सभी मजदूरों का खाना उनके घर से ही आता है, बाकी चाय, पानी, नमकीन का इंतजाम हम खुद करते हैं।
टेंट से बना 30*30 का कैंप है, 15 चारपाई लगी हैं
बड़ागांव विकास खंड के रतनपुर गांव में भी कुछ ऐसा ही नजारा है। यहां कुछ युवाओं ने मिलकर गांव के बाहर खाली पड़ी जगहमें ही टेम्परेरी टेंट लगाकर क्वारैंटाइन सेंटर बना दिया है, जो भी गांव का रहने वाला व्यक्ति बाहर से लौट रहा है, उसे 14 दिन यहां रोकने के बाद ही घर जाने की अनुमति दी जाती है।
सेंटर चलाने वाली टीम के सदस्य संतोष पटेल बताते हैं, जो भी बाहर से आता है उसे पहले काशी इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी में लगे मेडिकल कैंप से जांच करानी होती है। इसी के बाद मजदूरों को यहां रखा जाता है। यहां 15 चारपाईलगाए गए हैं। सबको साबुन, मॉस्क और सेनिटाइजर दिया गया है। फिलहाल 12 लोग यहां रुके हुए हैं।
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